शिक्षा तब बहुत आसान लगती है, जब ज्ञानवर्द्धन का तरीका मनोरंजक या रुचिकर हो। आध्यात्मिक संस्थानों और सत्संगों से जुड़े कार्यक्रम इसके सबूत हैं। चूंकि इन संस्थानों में मिलने वाली शिक्षा बोझिल नहीं होती, इसलिए ज्ञान की जमीन बंजर नहीं लगती। नतीजा यह होता है कि गीता, रामायण, वेद, उपनिषद् से लेकर हर धर्म के ग्रंथ उनकी शिक्षा लेनेवालों को कंठस्थ होते हैं। लेकिन आध्यात्मिक दायरे से बाहर निकलते ही शिक्षा देने का तरीका जटिल होना आम है। ऐसे में, जिन्हें शिक्षा ग्रहण करने की जिद न हो, उनके लिए यह दुष्कर कार्य में परिवर्तित हो जाता है। लेकिन प्रो. (डॉ.) अरुण कुमार भगत की नई पुस्तक 'हिन्दी की आधुनिक पत्रकारिता' इसका अपवाद है। इसकी बड़ी वजह है, पुस्तक में दी गई सामग्री को सुव्यवस्थित करने का तरीका। कई विषयों में पाठ्य पुस्तक या पठन सामग्री सर्वग्राह्य नहीं होती। उनके लिए भी नहीं, जो उस खास विषय की शिक्षा चाहते हैं। इसी का नतीजा परीक्षा परिणामों या शिक्षा छोड़नेवालों की संख्या में दिखता है। कला विषयक छात्रों के लिए विज्ञान से डर की एक बड़ी वजह यही मानी जाती है। पाठ्य पुस्तक या पठन सामग्री तथ्यों, सिद्धांतों और बौद्धिकता के बोझ से इस तरह लकदक रहती है कि वह व्यवहार में कैसे काम आए, इसका अनुमान तक नहीं लग पाता। इस तरह की पुस्तकें बोझिलता का भाव पैदा करने लगती हैं। जब पुस्तक बोझिल हो जाए तो यह मेधा में वृद्धि की जगह रट्टूमल ज्ञानार्जन के स्रोत में बदल जाती है। पत्रकारिता से संबद्ध विषयों के लिए ऐसा ज्ञान मौत के समान है। शायद यही वजह है कि प्रो.अरुण कुमार भगत की नई पुस्तक 'हिन्दी की आधुनिक पत्रकारिता' छात्रों की जिज्ञासा को बढ़ानेवाली और उसे व्यावसायिक संपूर्ण ज्ञान प्रदान करनेवाली है। इसे रोचक अंदाज में पाठ्य सामग्री से परिचित कराने के लिए तैयार किया गया है। यह पुस्तक सिद्धांत और व्यावहारिक शैली के मेलजोल से रची गई है।
पत्रकारिता की शिक्षा के लिए बाजार में पुस्तकों की बहुतायत है। इनमें से ज्यादातर पुस्तकों ने एक ढर्रे पर चलकर परिभाषाओं और कार्यप्रणाली की जानकारियों से 'बोझिलता के कोलाज' तैयार किया है। लेकिन पत्रकारिता की पुस्तकों की इस भीड़ में प्रो. (डॉ.) अरुण कुमार भगत की नई पुस्तक 'हिन्दी की आधुनिक पत्रकारिता' ताजा हवा, फूल और बादल का एहसास कराती है। ताजा हवा इसलिए, क्योंकि यह प्राणदायक, ऊर्जावर्द्धक और गतिमान् होने के साथ ही आलस-उबासी को भगाती है। फूल और बादल का एहसास इसलिए, क्योंकि इनमें कोमलता का भाव होता है, जो भावनाओं और कल्पनाओं में रंग भरते हैं, जिनसे चोट नहीं लगती। यानी ये कल्पनाशील होते हैं, कल्पनाओं में पंख लगाते हैं। हवा, फूल और बादल की इन कसौटियों पर प्रो. (डॉ.) अरुण कुमार भगत की नई पुस्तक 'हिन्दी की आधुनिक पत्रकारिता' बिलकुल खरी उतरती है। 'हिन्दी की आधुनिक पत्रकारिता' में पत्रकारिता के नवांकुरों को प्रस्फुटित होने के लिए जिस उपजाऊ जमीन की जरूरत है, वह इसमें मौजूद है।
पत्रकारिता का ककहरा सिखानेवाली यह पुस्तक बेहद रोचक अंदाज में आधुनिक पत्रकारिता से परिचय कराती है। इस पुस्तक से गुजरनेवाला पाठक और जिज्ञासु इस पवित्र पेशे के उद्देश्य, सामाजिक दायित्व को समझता हुआ इस तरह समाचार लेखन, संकलन, संपादन, पृष्ठ सज्जा और संपादकीय विभाग की कार्यशैली को आत्मसात् कर लेता है कि शिक्षा पूरी कर लेने के बाद उनके लिए अखबार का दफ्तर अजायबघर नहीं रह जाएगा। यानी यह पुस्तक पत्रकारिता के छात्रों को सिद्धांत से लेकर प्रयोग तक की पूर्ण शिक्षा देती है।
वरिष्ठ पत्रकार और हिंदी की आधुनिक पत्रकारिता पुस्तक के लेखक अरुण भगत
प्रो. भगत की नई पुस्तक पत्रकारिता के छात्रों को ध्यान में रखकर लिखी गई है। चूँकि अरुण कुमार भगत स्वयं भी सफल पत्रकार रहे हैं, इसलिए उनके अनुभव की छाप पुस्तक पर स्पष्ट तौर पर नजर आती है, जो 'हिन्दी की आधुनिक पत्रकारिता' को अब तक की ऐसी सभी पुस्तकों से अलग बनाती है। इस पुस्तक में ऐसे तथ्यों और विवेचनाओं की भरमार है, जो पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में शामिल अन्य पुस्तकों में शायद ही कहीं दिखे। ऐसा केवल हिन्दी पाठ्य पुस्तकों के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि अन्य भाषाओं की पुस्तकों में भी नजर नहीं आता।
ऐसा पुस्तक के कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। प्रो. भगत ने पुस्तक में समाचार चयन के सिद्धांत को जिस तरह रेखांकित किया है, उसका उदाहरण कहीं अन्यत्र नहीं मिलता। असल में समाचार चयन अनुभवजनित कर्म है, जिसे समाचार कक्ष के कनिष्ठ सहयोगियों पर नहीं छोड़ा जाता। इसकी एक बड़ी वजह इसका लंबे अनुभव से मिली सीख ही है। चूँकि पाठ्य पुस्तकों में अनुभव से मिली इस सीख को सिद्धांत के रूप में नहीं शामिल किया गया है, इसलिए अखबार में काम करनेवाले प्रतिभासंपन्न नए उपसंपादक भरोसे के साथ न कोई फैसला ले सकते हैं और न ही अपने वरिष्ठ सहयोगी को सुझाव ही दे सकते हैं। लेकिन इस कमी को 'हिन्दी की आधुनिक पत्रकारिता' पुस्तक ने दूर कर दिया है। पत्रकारिता में लंबे अनुभव के साथ समाचार संकलन या चयन की जो समझ विकसित होती है, इस पुस्तक में इसे बतौर सिद्धांत शामिल किया गया है, जो अन्यत्र किसी भी पुस्तक में नहीं दिखता। इसे एक पीढ़ी के व्यावहारिक अनुभव को दूसरी पीढ़ी तक सिद्धांत के रूप में पहुँचाने की सीढ़ी के रूप में अक्षरबद्ध करना माना जाएगा। इसे प्रो. भगत का मौलिक काम माना जाएगा।
यही नहीं, मौलिकता के लिहाज से एक अन्य तथ्य भी पत्रकारिता से जुड़े विद्यार्थियों, प्राध्यापकों और प्रोफेशनल का ध्यान खींचते हैं। समाचार संपादन के सिद्धांत को पहली बार इस पुस्तक में कलमबद्ध किया गया है। इस पुस्तक में कलमकार प्रो. भगत ने समाचार संपादन के शास्त्रीय सिद्धांत को भी प्रतिपादित किया है, जो इसे दूसरी पुस्तकों से अलग करता है। अब तक पत्रकारिता की पुस्तकों में समाचार संपादन के लिए किसी भी समाचार को कुछ बिंदुओं की कसौटी पर कसने के बाद अंतिम रूप देने का चलन रहा है। इसमें समाचार की गुणवत्ता, आमुख, उसकी शैली, डेट लाइन जैसी चीजों को आधार बनाकर संपादन के तौर-तरीके बताए जाते रहे हैं। लेकिन प्रस्तुत पुस्तक में समाचार संपादन की कुछ शास्त्रीय शैली से परिचित कराया गया है, जो पत्रकारिता और साहित्य की समृद्ध परंपराओं से निकली है और इसके जनक वे मनीषी हैं, जो हिन्दी पत्रकारिता की पहचान रहे हैं। जाहिर है, इस तरह के सिद्धांत को पढ़ाने से किसी भी छात्र के संपादन कला का संपूर्ण विकास तय है। जब छात्र आचार्य शिवपूजन सहाय की मधुकरी वृत्ति का सिद्धांत, आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव के मौलिकता के विसर्जन का सिद्धांत और डॉ. ओम नागपाल के प्रक्षालन का त्रिस्तरीय सिद्धांत को समझते हैं तो व्यवहार के धरातल पर उनके लिए साहित्य से लेकर पत्रकारिता तक के लिए संपादन की कला बहुत आसान हो जाती है।
इसी तरह इस पुस्तक का एक और अनमोल पहलू है समाचार के विभिन्न विधाओं से जुड़ा संस्कार। इस सृष्टि में मानव जीवन तो 16 संस्कारों से सुसज्जित है ही, साथ ही इससे जुड़ा हर पहलू भी संस्कारों से जुड़ा है। इसमें भाषा और बोली का संस्कार भी है। भाषा और बोली चूँकि शब्दों से बने हैं, इसलिए शब्दों का भी संस्कार है। जब शब्दों का संस्कार है तो इन शब्दों से तैयार समाचारों के प्रस्तुतीकरण का भी संस्कार होगा ही। समाचारों के प्रस्तुतीकरण का संस्कार कैसा होता है, क्यों होता है और संस्काररहित प्रस्तुतीकरण किस तरह अनर्थकारी हो सकता है, इस पुस्तक में इसकी विस्तार से चर्चा है और यह चर्चा पत्रकारिता से जुड़ी किसी अन्य पुस्तक में नहीं दिखती है।
इस पुस्तक में पत्रकारिता की अलग-अलग विधाओं से परिचय तो कराया ही गया है, लेकिन इसके साथ-साथ इन विधाओं की बारीकियों और जटिलताओं को अलग-अलग उदाहरणों के साथ इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि कठिन-से-कठिन विषय बेहद सरल नजर आने लगते हैं। एक पत्रकार के लिए सबसे जरूरी और पहली चीज है समाचार की पहचान। 'नोज फॉर न्यूज' जुमला इसी से निकला है। लेकिन कोई जानकारी समाचार है या नहीं, इसके लिए जिस तरह की दृष्टि और सूँघने की शक्ति चाहिए, वह किस तरह स्वभाव का हिस्सा बन जाए, इस पुस्तक में उसके गुर उदाहरणों के जरिए सिखाए गए हैं। समाचार संकलन, समाचार लेखन, समाचार संकलन के लिए स्रोत की पहचान, समाचार लेखन की विधि, समाचार लेखन की विधाएँ, समाचार की प्रस्तुति, समाचार का विश्लेषण; ये सब हुनर कैसे आए, इसे बताने, जताने और सिखाने के लिए न केवल खबरों की मदद ली गई है, बल्कि कई हुनरमंदों के उदाहरणों से इसे समझाया गया है। इस पुस्तक में जटिल-से-जटिल विषयों को रुचिकर, मनोरंजक और किस्सागोई की शैली में प्रस्तुत किया गया है। जब शैली ऐसी हो तो छात्रों के लिए न सीखना कठिन रह जाता है, न परीक्षाओं में अच्छा नहीं करने का डर रह जाता है और न ही अखबार के दफ्तर में काम करने को लेकर आत्मविश्वास की कमी। यानी यह पुस्तक पत्रकारिता के छात्रों की जिंदगी आसान बनानेवाली तो है ही, साथ ही उनकी पत्रकारीय मेधा को स्वभाव का हिस्सा बनानेवाली भी है।
(समीक्षक मुद्रित और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में निवास करते हैं।)